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वर्तमान में बंगाल में लब्ध-प्रतिष्ठित श्री पुरोहित का जन्म राजस्थान के बीकानेर शहर में 1982 में हुआ। उनके माता-पिता साधारण जीवन जीते है, लेकिन शिक्षा और संस्कारों पर विशेष ध्यान देते रहे । "श्री पुरोहित" की प्रारंभिक शिक्षा कलकत्ता महानगर में हुई, जहाँ उन्होंने अपने विद्यालय के दिनों में ही शास्त्रों और वेदों के प्रति गहरी रुचि विकसित की। श्री पुरोहित के दादा जी "श्री मनी राम जी पुरोहित" जो नित्य ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्य भागवत का पाठ करते थे । श्री पुरोहित अपने द्वारा किए जा रहे बड़े बड़े यज्ञ आदि अनुष्ठान अपने दादा जी का आशीर्वाद ही मानते है । वर्तमान में श्री पुरोहित के पिता "श्री गोविंद लाल जी पुरोहित भी अपने पिता जी की तरह ही नित्य भागवत का पाठ करते है और अपने दैनिक जीवन का लगभग समय श्री ठाकुर जी की सेवा में ही लगाते है । श्री पुरोहित की माता जी का कहना है कि जब श्री पुरोहित गर्भवास में थे तो वे नित्य भागवत का पाठ 9 मास तक करती रही और उसी संस्कार से श्री पुरोहित की अध्यात्म में रुचि है । श्री पुरोहित के एक छोटी बहन और एक छोटा भाई भी है । 1994 में, पारिवारिक परिस्थितियों के कारण, वे कलकत्ता से बीकानेर आ गए। बीकानेर के विख्यात डूंगर महाविद्यालय में उन्होंने दाखिला लिया और वहीं से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इस दौरान, उनकी रुचि पांडित्य कर्म में और भी गहरी हो गई। मनीष जी को इस दिशा में अपनी नानीजी स्वर्गीय कमला देवी से प्रेरणा मिली, जो स्वयं भी धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व थीं। मनीष जी के नानाजी स्वर्गीय भगवन दास जी रंगा और मामाजी श्री शिवनारायण जी रंगा ने उन्हें वेद पाठ और कर्मकांड अध्ययन में मार्गदर्शन प्रदान किया। उन्होंने बीकानेर में अपने ननिहाल के पास स्थित लालीमाई वेदपाठशाला में श्री बलदेव जी छंगाणी (श्रीराम) से वेदविद्या का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त किया। वे जब भी पाठशाला से अध्ययन करके घर लौटते थे, नानाजी उन्हें फिर से अभ्यास करवाते थे, जिससे उनकी विद्या में और निखार बढ़ गया। 2001 में, मनीष जी बीकानेर से कलकत्ता वापस लौटे। संघर्षमय जीवन जीते हुए, उन्होंने ज्योतिष और वास्तु शास्त्र में विशारद आदि उपाधियाँ प्राप्त कीं। उनका यह सफर आसान नहीं था, लेकिन उनकी लगन और परिश्रम ने उन्हें सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचाया। आज, श्री पुरोहित न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी अपने ज्ञान से लोगों को लाभान्वित कर रहे हैं। उन्होंने थाईलैंड, काठमांडू और अन्य देशों की यात्राएँ की हैं, जहाँ उनके आचार्यत्व में दो बार सहस्रचंडी का आयोजन हुआ। काठमांडू में आयोजित सहस्रचंडी यज्ञ ने उनकी ख्याति को और भी बढ़ाया। श्री पुरोहित श्रीमद्भागवत प्रवचन में भी गहरी रुचि रखते हैं और इसका ज्ञान भी उन्हें अपने परिवार से ही प्राप्त हुआ है। वे अपने प्रवचनों में श्रीमद्भागवत की कथाओं को सरल और रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जिससे उनके श्रोताओं को आध्यात्मिक शांति और मार्गदर्शन प्राप्त होता है। श्री पुरोहित का जीवन संघर्ष, शिक्षा, और समर्पण का एक अद्वितीय उदाहरण है। उनके जीवन की कहानी यह सिखाती है कि कठिन परिस्थितियों में भी अगर व्यक्ति धैर्य और मेहनत से काम करता है, तो वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। उनके ज्ञान और अनुभव से प्रेरित होकर, कई युवा भी पांडित्य कर्म और वेद अध्ययन की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।